संघ का अंतिम लक्ष्य परमवैभवशाली भारत

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कल्पना में ‘परमवैभवशाली भारत’ ही भविष्य का भारत है। यही कल्पना स्वामी विवेकानन्द, स्वामी दयानन्द, स्वामी रामतीर्थ, महर्षि अरविंद, डॉक्टर हेडगेवार, सुभाष चन्द्र बोस, वीर सावरकर, सरदार भगत सिंह और महात्मा गांधी जैसे महान स्वतंत्रता सेनानियों ने की थी। अतः जब तक भारत का भूगोल, संविधान, शिक्षा प्रणाली, आर्थिक नीति, संस्कृति, समाज-रचना इत्यादि विदेशी विचारधारा से प्रभावित और पश्चिम के अंधानुकरण पर आधारित रहेंगे, तब तक भारत के उज्जवल एवं परम वैभवशाली भविष्य की कल्पना नहीं की जा सकती।

स्वाधीन भारत में महात्मा गांधी जी के वैचारिक आधार स्वदेश, स्वदेशी, स्वधर्म, स्वभाषा, स्वसंस्कृति, स्वरक्षा और स्वराज्य इत्यादि को तिलांजलि दे दी गई। वर्तमान स्वाधीन भारत में मानसिक एवं वैचारिक पराधीनता का बोलबाला है। देश को बांटने वाली विधर्मी/विदेशी मानसिकता के फलस्वरूप देश में अलगाववाद, आतंकवाद, भ्रष्टाचार, सामाजिक विषमता और संकीर्ण जातिवाद इत्यादि पांव पसार चुके हैं। इन सब विकृतियों को पूर्णतया जड़मूल से समाप्त करके प्रखर राष्ट्रभक्ति के भाव भरकर भारत के उज्जवल भविष्य का निर्माण करना, यही संघ का उद्देश्य है।

‘रामराज्य’ एवं ‘हिन्द स्वराज’ जैसे आदर्श महात्मा गांधी जी की जीवन यात्रा के घोषणापत्र थे। स्वदेश, स्वदेशी, स्वभाषा, स्वधर्म इत्यादि विचार तत्वों को गांधी जी ने स्वतंत्रता आंदोलन की कार्य संस्कृति बनाया था। गांधी जी इन्हीं आदर्शों के आधार पर भारतीयों को स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने की प्रेरणा देते रहे। महात्मा गांधी जी अंत तक प्रयास करते रहे कि रामराज्य एवं हिन्दस्वराज जैसी भारतीय अवधारणाओं एवं भारत की सनातन अजर-अमर संस्कृति के आधार पर ही भारत के संविधान, शिक्षा प्रणाली, आर्थिक रचना इत्यादि का ताना-बाना बुना जाए। संघ के दृष्टिकोण में भारत के भविष्य का निर्माण भी भारत की सनातन उज्जवल संस्कृति की सुदृढ़ नींव पर ही हो सकता है।

उल्लेखनीय है कि भारत की श्रेष्ठ सांस्कृतिक धरोहर को तिलांजलि देने के भयानक दुष्परिणाम सबके सामने हैं। हमारा भारत जो स्वतंत्रता संग्राम के समय एकजुट था, वह अब भाषा, क्षेत्र, जाति और मजहब के आधार पर विभाजित हो गया है। पूर्वकाल में जो एकत्व भाव निर्माण हुआ था वह विघटन में बदल गया। वोट की राजनीति का उदय हो गया, फलस्वरूप सर्वत्र भ्रष्टाचार का बोलबाला होने लगा। अमीर और गरीब की खाई का आकार बढ़ने लगा। वोटबैंक अस्तित्व में आ गए।

भौगोलिक, संवैधानिक, शैक्षणिक एवं आर्थिक स्वाधीनता के साथ-साथ देश की सांस्कृतिक स्वाधीनता का भी एक विशेष महत्व होता है। संस्कृति राष्ट्र जीवन का आधार होती है और राष्ट्र के सम्पूर्ण शरीर में रक्त का संचार करती है। परतंत्र देश में विदेशी शासक स्वदेशी संस्कृति पर ही प्रहार करते है। हमारे देश में भी मुस्लिम एवं ईसाई साम्राज्यवादियों ने यही किया है। अपने धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए हमारी विशाल स्वदेशी संस्कृति के विविध स्वरूपों को तहस-नहस कर दिया गया। भारत के साहित्य, कला, दर्शन, स्मृति, शास्त्र, समाज रचना, इतिहास एवं सभ्यता को तोड़-मरोड़ कर समाज के सामने परोस दिया गया। परतंत्रता के काल में हमारे गतिशील सांस्कृतिक प्रवाह को अवरुद्ध कर दिया गया। यह सब कुछ हमारे समाज के शक्तिहीन और असंगठित रहने के कारण ही हुआ।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद यह जरूरी था कि हमारी सांस्कृतिक गतिशीलता की सम्पूर्ण बाधाएं समाप्त हों। परन्तु ग्लोबलाइजेशन के नाम पर हम अपनी अमर-अजर सांस्कृतिक परम्पराओं को तिलांजलि दे बैठे। प्रश्न पैदा होता है कि अपनी जड़ों से कटकर हम भारतवासी कितने दिन तक जिंदा रह सकते हैं। कितने आश्चर्य की बात है कि जिन विदेशी ताकतों के विरुद्ध हमने सदियों तक जंग लड़ी है उनकी ही जीवन प्रणाली को हम आधुनिकता के नाम पर गौरव महसूस कर रहे हैं। यह मानसिक एवं बौद्धिक परतंत्रता नहीं तो और क्या है।

एकात्म मानववाद के मंत्रदृष्टा पंडित दीनदयाल उपाध्याय के शब्दों में ‘‘राष्ट्रभाव के ह्रास से अनेकों समस्याओं को जन्म मिला है। यह एक त्रिकालबाधित सत्य है कि राष्ट्रभाव को छोड़कर कोई भी राष्ट्र उन्नति नहीं कर सकता, न अतीत में कर सका है, न भविष्य में कर सकेगा। जब तक धर्म और संस्कृति के बारे में पूर्वाग्रह छोड़कर उसके व्यापक और सनातन तत्व का साक्षात्कार कर राष्ट्र जीवन को सुदृढ़ बनाने का प्रयास नहीं होता, तब तक हमारी सर्वांगीण उन्नति का पथ अवरुद्ध ही रहेगा।

हम भारतवासियों के सौभाग्य से आज परिवर्तन की एक लहर चलना प्रारम्भ हो गई है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सतत साधना के फलस्वरूप आज राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्र में राष्ट्रभाव का जागरण हो रहा है। महात्मा गांधी की रामराज्य की कल्पना साकार हो रही है। भारत की सर्वांग उन्नति के अपने ध्येय की प्राप्ति के लिए संघ के स्वयंसेवक समस्त समाज को साथ लेकर आगे बढ़ रहे हैं। बहुत कुछ हो गया है, बहुत कुछ रह भी गया है, जो रह गया है उसे प्राप्त करने के लिए संघ प्रयत्नशील है। परम पूजनीय सरसंघचालक श्रीमान मोहन भागवत के शब्दों में ‘‘वर्तमान में ऐसा उज्जवल दौर शुरु हो चुका है जिसमें भविष्य का भारत पहले से भी अधिक शक्तिशाली विश्व गुरु के रूप में उभरेगा।

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