Pune, 4th November 2017
Dr. Krishna GopalJi, Sah Sarkaryawah of RSS, said that Bharat is described in its scriptures. Although thoughts in these scriptures are global in nature, there is utmost reverence for the source of this wisdom. That we are Bhartiya and Global at the same time, is an unparalleled poise.
Honourable Governor of Gujarat, Shri. OmPrakash Kohli, inaugurated 2 day Symposium “GyanSangama” organized by Pragnya Pravah & Prabodhan Manch in SavitriBai Phule Pune University Campus. “Nationalism in Indian Education Practices and Present Context” was the theme of this symposium. Shri Krishna GopalJi was addressing this Symposium as Chief Speaker. Luminaries present on the dais were
1. Vice Chancellor of SavitriBai Phule Pune University, Shri Nitin Karmalkar
2. Convener of Pragnya Pravah, Shri J. Nandakumar
3. Akhil Bhartiya Sampark Pramukh of RSS, Prof. Anirudh Deshpande.
4. Shri Haribhau Mirasdar of Prabodhan Manch.
5. Organizer of “GyanSangama” , Dr. Anand Lele.
Analysing Bharatiya society which was the consequence of educational practices right from Vedic age, Dr. Krishna GopalJi said that there are subtle differences in the western and Bhartiya notion of nation and nationalism. Thousand years of slavery obstructed Bhartiya wisdom and knowledge to spread its wings. We lost our own identity. Therefore we need to understand what should be the direction of Bharat. We need to understand the western notion of nation. We also need to understand Bhartiya notion of nation and nationalism. West developed its notion of nation after French revolution. Western notion of nation is based on differentiation. There is no such premise in Bhartiya wisdom. We follow the premise of benevolence for every living organism in our notion of nation. We consider this earth our mother. Bharat is described in its scriptures. Although thoughts in these scriptures are global in nature, there is utmost reverence for the source of this wisdom. That we are Bhartiya and Global at the same time, is an unparalleled poise.
Bhartiya wisdom is a confluence of global fraternity and spirituality. This wisdom is deeply embedded in every individual of Bharat. Every sect on this land, Vedic, non-Vedic, Shaiv, Vaishnav, swear by the thought of society upheaval and general good. Such wisdom is not visible in the western notion of nation.
Dr. Krishna GopalJi said that Britain’s ex-prime minister Winston Churchill once famously quoted that India will not retain its unity post-independence. However he was proved wrong. Bharat could retain its unity amidst diversity by virtue of its cultural bonding. On the contrary many western nations such as erstwhile USSR, Yugoslavia, are no more on the world map. They got fragmented into many small nations. Today, Catalina is vying for independence from Spain!!!!
Convener of Pragnya Pravah, Shri J. Nandkumar said, Bharat is land of knowledge and wisdom. Place where one takes pleasure in sharing knowledge is called Bharat. Unfortunately we were the recipient of many external aggression which inhibited the flow of Bhartiya wisdom and knowledge to larger masses. To our dismay, even after independence this flow did not get rejuvenated. We are still intellectual slaves of imperialism. Pragnya Pravah is a cultural attempt to rekindle Bharat specific intellectual discourse. It is our endeavour to put Bhartiya discourse on global platform. Same is the objective of organizing “GyanSangama” too. We ought to analyse Bhartiya knowledge and wisdom in contemporary context. To accomplish the same, “GyanSangama” which is a confluence of scholars, is being organized on pan India level. It will happen on 6 places within Bharat.
Honourable Governor of Gujrat, Shri. OmPrakash Kohli, said, Roots of any education should lie in its cultural heritage. If not so, education leads to unruliness. We could not retain the roots of our cultural heritage in our education system during Mughal and British rules. Muslim aggression made us politically fallible but kept us psychologically invincible. However 200 years of British rule made us fallible both psychologically and politically. How to overcome such psychological barriers is a critical question in front of us. Panacea lies in associating sense of nationalism with education.
Quoting Mahrishi Arvind, Shri. OmPrakash KohliJi said, Bhartiya masses are bonded together with the sense of cultural identity. Spirituality is the basis of Bhartiya culture. Omnipresence is one virtue of the same. Another virtue is eternity. We do observe signs of weakness though every now and then. Heritage is nothing but the cultural treasure which we pass from one generation to another. If we wish to retain our heritage, education has to play a critical role. If there are gaps in our education system to achieve this goal, we ought to fill this gap by means of Bhartiya education system. Our education should not only be close to our natural instincts but also prepare us to take on contemporary challenges.
He expressed his displeasure about the fact that we have dependent education in an independent nation. To weed out guilty consciousness, Bhartiyakaran of our education is must. We must pass on our notion of nation to our future generations.
Vice Chancellor of SavitriBai Phule Pune University, Shri Nitin Karmalkar said, one of the contemporary challenges facing us is how to provide quality education to all. We must contemplate an education system which can provide meaningful employment to our youth. Nalanda and Takshshila form our educational heritage. Our curriculum should put together nobility and novelty from both ancient and modern education systems.
भारत की राष्ट्र की अवधारणा विशिष्ट है, अद्भूत है - डॉ. कृष्ण गोपालजी
पुणे, 4 नवंबर – राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह डॉ. कृष्ण गोपालजी ने आज यहां कहा, कि भारत के पूरे साहित्य में भारत का वर्णन है| इसमें वैश्विक भावना तो है लेकिन यह विचार जहां से आया है उसके प्रति भक्ति भी है| वैश्विक होते हुए भी हम भारतीय है, यह अद्वितीय समन्वय है।
सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय में प्रज्ञा प्रवाह तथा प्रबोधन मंच की ओर से आयोजित दो दिवसीय संगोष्ठी ‘ज्ञानसंगम’ का उद्घाटन श्री. कोहली के हाथों हुआ| ‘भारतीय शैक्षिक परंपरा में राष्ट्रबोध एवं वर्तमान संदर्भ’ विषय पर यह संगोष्ठी आयोजित है| इस अवसर पर श्री. कृष्ण गोपालजी मुख्य वक्ता के तौर पर संबोधन कर रहे थे| गुजरात के राज्यपाल ओमप्रकाश कोहली के हाथों इस संगोष्ठी का उद्घाटन हुआ। सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय के कुलगुरू नितीन करमलकर, प्रज्ञा प्रवाह के राष्ट्रीय संयोजक जे. नंदकुमार, रा. स्व. संघ के ९ भारतीय संपर्क प्रमुख प्रो. अनिरुद्ध देशपांडे, प्रबोधन मंच के हरिभाऊ मिरासदार तथा ज्ञानसंगम के संयोजक डॉ. आनंद लेले इस अवसर पर मंच पर उपस्थित थे|
वैदिक काल से लेकर देश की शिक्षा संस्कृति और उससे विकसित भारतीय समाज का जायजा लेते हुए श्री. कृष्ण गोपालजी ने कहा, ‘पश्चिमी राष्ट्रवाद आणि भारतीय विचार में बड़ा फर्क है जिसे समझने की आवश्यकता है। “पिछले एक हजार वर्षों में भारतीय ज्ञान का प्रवाह अवरुद्ध हुआ था| हम कौन है? भारत की दिशा क्या होनी चाहिए? इसका हमें विचार करना होगा| हमें पाश्चात्य ‘नेशन’ की अवधारणा को समझना होगा और छात्रों को ठीक से समझाना होगा| भारत का राष्ट्रभाव समझना होगा| फ्रांसीसी क्रांति के बाद पश्चिमी जगत् में नेशन की अलग ही कल्पना विकसित हुई| पश्चिम की नेशनिलिटी अलगता पर आधारित है| भारत के किसी भी शब्दकोश में एक्सक्लुजिव शब्द नहीं है| भारत में अलगता की कल्पना नहीं है| भारत में राष्ट्र की भावना लोकमंगलकारी है| लोकमंगलकारी यानि सभी प्राणियों के कल्याण की भावना| हमने पृथ्वी को मां माना है| भारत के साहित्य में भारत का वर्णन है| वैश्विक भावना तो है लेकिन यह विचार जहां से आया है उसके प्रति भक्ति भी है| वैश्विक होते हुए भी हम भारतीय है, यह अद्वितीय समन्वय है|"
भारतीयों में विश्वबंधुत्व आणि अध्यात्म का जोड़ है। यह विचार देश के हर कोने और हर व्यक्ति तक पहुंच चुका है। हिंदूओं में वैदिक, अवैदिक, श्रमणों से लेकर वीरशैव तक के पंथों में समाज कल्याण और समाज उद्धार का विचार है जो युरोपीय राष्ट्रवाद में नहीं दिखता, उन्होंने कहा।
श्री. कृष्णगोपालजी ने कहा, ”ब्रिटिश प्रधानमंत्री विस्टन चर्चिल ने कहा था, कि भारत स्वतंत्रता के बाद एक नहीं रहेगा। ळेकिन भारत में बड़े पैमाने पर विविधता होने के बावजूद केवल सांस्कृतिक बंध के कारण ही भारत अखंड है। इसके विपरीत सोविएत महासंघ, युगोस्लाव्हियासहित युरोप के कई देशों का विभाजन हुआ है। आज भी स्पेन के कैटेलोनिया जैसे प्रांत में स्वतंत्रता की मांग ने तुल पकड़ी है।”
प्रज्ञा प्रवाह के राष्ट्रीय संयोजक जे. नंदकुमार ने कहा, “हमारा देश ज्ञानभूमि है| आनंद देते हुए और आनंद लेते हुए जहां ज्ञान दिया जाता है उस देश का नाम है भारत| हमारे देश पर कई आक्रमण हुए| कुछ वर्ष गुलामी में बीते, शायद इसलिए ज्ञान का आदानप्रदान कम हुआ| स्वतंत्रता के बाद भी इसमें गति नहीं आई| वैचारिक क्षेत्र में उपनिवेशवाद आज भी चल रहा है| आज भी सांस्कृतिक गुलामी जारी है| भारतकेंद्रीत अध्ययन को बढावा देने के लिए जो सांस्कृतिक प्रयास शुरू हुआ उसका नाम है प्रज्ञा प्रवाह| भारतकेंद्रीत चिंतन को विश्व के सामने रखना है| ज्ञानसंगम का आयोजन इसी उद्देश्य से किया गया है। भारतीय शिक्षा परंपरा और ज्ञान पर कालसुसंगत विचार विनिमय करने हेतु ज्ञानसंगम नामक विद्वत सभा की अखिल भारतीय स्तर पर आयेाजन किया गया था। यही उपक्रम वैचारिक क्षेत्र में आंदोलन का कान करनेवाले प्रज्ञा प्रवाह नामक मंच के माध्यम से देश में क्षेत्रीय स्तर पर छह स्थानों पर आयोजित किया जा रहा है|”
राज्यपाल कोहली ने कहा, “शिक्षा की जड़़े उसे देश की संस्कृति में होनी चाहिए| ऐसा न हो तो वह अराजकीय हो जाती है| मुस्लिम और ब्रिटिश काल में हम अपनी शिक्षा की जड़ें अपनी संस्कृति में रख नहीं पाए| मुस्लिम आक्रमण के समय हम राजनैतिक रूप से पराजित हुए लेकिन मानसिक रूप से अजेय रहे| ब्रिटिशों के 200 वर्षों के राज में हम न केवल राजनैतिक बल्कि मानसिक रूप से पराजित हुए| इस मानसिक पराजय से कैसे उबरना है यह हमारे सामने अहम सवाल है| स्वतंत्र भारत को हमें राष्ट्रबोध से जोड़ना इसलिए शिक्षा को भी राष्ट्रबोध से जोड़ना है|”
महर्षि अरविंद को उद्धृत करते हुए श्री. कोहली ने कहा, “भारतीय लोग सांस्कृतिक भावना से जुड़े हुए है| भारतीय संस्कृति का मूल भाव अध्यात्म है| सार्वभौमिकता उसका एक गुण है| वह शाश्वत है यह उसका दूसरा गुण है| कभी-कभी इसमें दुर्बलता आती है| एक पिढी से अगली पीढ़ी में संपदा संक्रमण करना यही परंपरा है| हमें अपनी परंपरा जिंदा करनी है तो उसमें शिक्षा की महत्वपूर्ण भूमिका है| अगर शिक्षा इसमें कम पड़ती है तो इसमें सुधार करना होगा और शिक्षा का भारतीयकरण करना होगा| शिक्षा हमारी देश की प्रकृति से जुडनी चाहिए, साथ ही आधुनिक चुनौतियों से लढ़ने में वह सक्षम होनी चाहिए||”
उन्होंने अफसोस जताया, कि स्वतंत्र देश में शिक्षा अभी भी परतंत्र है| अपराधबोध निकालने के लिए शिक्षा का भारतीयकरण जरूरी है| हमारे ऋषियों जो राष्ट्र की अवधारणा दी है, उसे अगली पीढी तक पहुंचाना होगा|
मानवशास्त्र के विषय में राष्ट्रबोध लाना होगा|
कुलुगुरु नितीन करमलकर ने कहा, “गुणवत्ता से समझौता किए बिना सबको शिक्षा प्रदान करना हमारे देश के सम्मुख उपस्थित समस्याओं में से एक है| शिक्षा प्रणाली के सर्वोत्कृष्ट परिणाम पाकर छात्रों को रोजगार मुहैय्या कराने के लिए हम सबको मिलकर विचार विमर्श करना चाहिए| नालंदा और तक्षशीला से लेकर भारत में शिक्षा की प्राचीन परंपरा रही है| हमारे पाठ्यक्रम में प्राचीन शिक्षा प्रणाली और आधुनिक ज्ञान का संगम होना चाहिए|” कार्यक्रम का सूत्रसंचालन प्रसन्न देशपांडे ने किया|
Dr. Krishna GopalJi, Sah Sarkaryawah of RSS, said that Bharat is described in its scriptures. Although thoughts in these scriptures are global in nature, there is utmost reverence for the source of this wisdom. That we are Bhartiya and Global at the same time, is an unparalleled poise.
Honourable Governor of Gujarat, Shri. OmPrakash Kohli, inaugurated 2 day Symposium “GyanSangama” organized by Pragnya Pravah & Prabodhan Manch in SavitriBai Phule Pune University Campus. “Nationalism in Indian Education Practices and Present Context” was the theme of this symposium. Shri Krishna GopalJi was addressing this Symposium as Chief Speaker. Luminaries present on the dais were
1. Vice Chancellor of SavitriBai Phule Pune University, Shri Nitin Karmalkar
2. Convener of Pragnya Pravah, Shri J. Nandakumar
3. Akhil Bhartiya Sampark Pramukh of RSS, Prof. Anirudh Deshpande.
4. Shri Haribhau Mirasdar of Prabodhan Manch.
5. Organizer of “GyanSangama” , Dr. Anand Lele.
Analysing Bharatiya society which was the consequence of educational practices right from Vedic age, Dr. Krishna GopalJi said that there are subtle differences in the western and Bhartiya notion of nation and nationalism. Thousand years of slavery obstructed Bhartiya wisdom and knowledge to spread its wings. We lost our own identity. Therefore we need to understand what should be the direction of Bharat. We need to understand the western notion of nation. We also need to understand Bhartiya notion of nation and nationalism. West developed its notion of nation after French revolution. Western notion of nation is based on differentiation. There is no such premise in Bhartiya wisdom. We follow the premise of benevolence for every living organism in our notion of nation. We consider this earth our mother. Bharat is described in its scriptures. Although thoughts in these scriptures are global in nature, there is utmost reverence for the source of this wisdom. That we are Bhartiya and Global at the same time, is an unparalleled poise.
Bhartiya wisdom is a confluence of global fraternity and spirituality. This wisdom is deeply embedded in every individual of Bharat. Every sect on this land, Vedic, non-Vedic, Shaiv, Vaishnav, swear by the thought of society upheaval and general good. Such wisdom is not visible in the western notion of nation.
Dr. Krishna GopalJi said that Britain’s ex-prime minister Winston Churchill once famously quoted that India will not retain its unity post-independence. However he was proved wrong. Bharat could retain its unity amidst diversity by virtue of its cultural bonding. On the contrary many western nations such as erstwhile USSR, Yugoslavia, are no more on the world map. They got fragmented into many small nations. Today, Catalina is vying for independence from Spain!!!!
Convener of Pragnya Pravah, Shri J. Nandkumar said, Bharat is land of knowledge and wisdom. Place where one takes pleasure in sharing knowledge is called Bharat. Unfortunately we were the recipient of many external aggression which inhibited the flow of Bhartiya wisdom and knowledge to larger masses. To our dismay, even after independence this flow did not get rejuvenated. We are still intellectual slaves of imperialism. Pragnya Pravah is a cultural attempt to rekindle Bharat specific intellectual discourse. It is our endeavour to put Bhartiya discourse on global platform. Same is the objective of organizing “GyanSangama” too. We ought to analyse Bhartiya knowledge and wisdom in contemporary context. To accomplish the same, “GyanSangama” which is a confluence of scholars, is being organized on pan India level. It will happen on 6 places within Bharat.
Honourable Governor of Gujrat, Shri. OmPrakash Kohli, said, Roots of any education should lie in its cultural heritage. If not so, education leads to unruliness. We could not retain the roots of our cultural heritage in our education system during Mughal and British rules. Muslim aggression made us politically fallible but kept us psychologically invincible. However 200 years of British rule made us fallible both psychologically and politically. How to overcome such psychological barriers is a critical question in front of us. Panacea lies in associating sense of nationalism with education.
Quoting Mahrishi Arvind, Shri. OmPrakash KohliJi said, Bhartiya masses are bonded together with the sense of cultural identity. Spirituality is the basis of Bhartiya culture. Omnipresence is one virtue of the same. Another virtue is eternity. We do observe signs of weakness though every now and then. Heritage is nothing but the cultural treasure which we pass from one generation to another. If we wish to retain our heritage, education has to play a critical role. If there are gaps in our education system to achieve this goal, we ought to fill this gap by means of Bhartiya education system. Our education should not only be close to our natural instincts but also prepare us to take on contemporary challenges.
He expressed his displeasure about the fact that we have dependent education in an independent nation. To weed out guilty consciousness, Bhartiyakaran of our education is must. We must pass on our notion of nation to our future generations.
Vice Chancellor of SavitriBai Phule Pune University, Shri Nitin Karmalkar said, one of the contemporary challenges facing us is how to provide quality education to all. We must contemplate an education system which can provide meaningful employment to our youth. Nalanda and Takshshila form our educational heritage. Our curriculum should put together nobility and novelty from both ancient and modern education systems.
भारत की राष्ट्र की अवधारणा विशिष्ट है, अद्भूत है - डॉ. कृष्ण गोपालजी
पुणे, 4 नवंबर – राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह डॉ. कृष्ण गोपालजी ने आज यहां कहा, कि भारत के पूरे साहित्य में भारत का वर्णन है| इसमें वैश्विक भावना तो है लेकिन यह विचार जहां से आया है उसके प्रति भक्ति भी है| वैश्विक होते हुए भी हम भारतीय है, यह अद्वितीय समन्वय है।
सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय में प्रज्ञा प्रवाह तथा प्रबोधन मंच की ओर से आयोजित दो दिवसीय संगोष्ठी ‘ज्ञानसंगम’ का उद्घाटन श्री. कोहली के हाथों हुआ| ‘भारतीय शैक्षिक परंपरा में राष्ट्रबोध एवं वर्तमान संदर्भ’ विषय पर यह संगोष्ठी आयोजित है| इस अवसर पर श्री. कृष्ण गोपालजी मुख्य वक्ता के तौर पर संबोधन कर रहे थे| गुजरात के राज्यपाल ओमप्रकाश कोहली के हाथों इस संगोष्ठी का उद्घाटन हुआ। सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय के कुलगुरू नितीन करमलकर, प्रज्ञा प्रवाह के राष्ट्रीय संयोजक जे. नंदकुमार, रा. स्व. संघ के ९ भारतीय संपर्क प्रमुख प्रो. अनिरुद्ध देशपांडे, प्रबोधन मंच के हरिभाऊ मिरासदार तथा ज्ञानसंगम के संयोजक डॉ. आनंद लेले इस अवसर पर मंच पर उपस्थित थे|
वैदिक काल से लेकर देश की शिक्षा संस्कृति और उससे विकसित भारतीय समाज का जायजा लेते हुए श्री. कृष्ण गोपालजी ने कहा, ‘पश्चिमी राष्ट्रवाद आणि भारतीय विचार में बड़ा फर्क है जिसे समझने की आवश्यकता है। “पिछले एक हजार वर्षों में भारतीय ज्ञान का प्रवाह अवरुद्ध हुआ था| हम कौन है? भारत की दिशा क्या होनी चाहिए? इसका हमें विचार करना होगा| हमें पाश्चात्य ‘नेशन’ की अवधारणा को समझना होगा और छात्रों को ठीक से समझाना होगा| भारत का राष्ट्रभाव समझना होगा| फ्रांसीसी क्रांति के बाद पश्चिमी जगत् में नेशन की अलग ही कल्पना विकसित हुई| पश्चिम की नेशनिलिटी अलगता पर आधारित है| भारत के किसी भी शब्दकोश में एक्सक्लुजिव शब्द नहीं है| भारत में अलगता की कल्पना नहीं है| भारत में राष्ट्र की भावना लोकमंगलकारी है| लोकमंगलकारी यानि सभी प्राणियों के कल्याण की भावना| हमने पृथ्वी को मां माना है| भारत के साहित्य में भारत का वर्णन है| वैश्विक भावना तो है लेकिन यह विचार जहां से आया है उसके प्रति भक्ति भी है| वैश्विक होते हुए भी हम भारतीय है, यह अद्वितीय समन्वय है|"
भारतीयों में विश्वबंधुत्व आणि अध्यात्म का जोड़ है। यह विचार देश के हर कोने और हर व्यक्ति तक पहुंच चुका है। हिंदूओं में वैदिक, अवैदिक, श्रमणों से लेकर वीरशैव तक के पंथों में समाज कल्याण और समाज उद्धार का विचार है जो युरोपीय राष्ट्रवाद में नहीं दिखता, उन्होंने कहा।
श्री. कृष्णगोपालजी ने कहा, ”ब्रिटिश प्रधानमंत्री विस्टन चर्चिल ने कहा था, कि भारत स्वतंत्रता के बाद एक नहीं रहेगा। ळेकिन भारत में बड़े पैमाने पर विविधता होने के बावजूद केवल सांस्कृतिक बंध के कारण ही भारत अखंड है। इसके विपरीत सोविएत महासंघ, युगोस्लाव्हियासहित युरोप के कई देशों का विभाजन हुआ है। आज भी स्पेन के कैटेलोनिया जैसे प्रांत में स्वतंत्रता की मांग ने तुल पकड़ी है।”
प्रज्ञा प्रवाह के राष्ट्रीय संयोजक जे. नंदकुमार ने कहा, “हमारा देश ज्ञानभूमि है| आनंद देते हुए और आनंद लेते हुए जहां ज्ञान दिया जाता है उस देश का नाम है भारत| हमारे देश पर कई आक्रमण हुए| कुछ वर्ष गुलामी में बीते, शायद इसलिए ज्ञान का आदानप्रदान कम हुआ| स्वतंत्रता के बाद भी इसमें गति नहीं आई| वैचारिक क्षेत्र में उपनिवेशवाद आज भी चल रहा है| आज भी सांस्कृतिक गुलामी जारी है| भारतकेंद्रीत अध्ययन को बढावा देने के लिए जो सांस्कृतिक प्रयास शुरू हुआ उसका नाम है प्रज्ञा प्रवाह| भारतकेंद्रीत चिंतन को विश्व के सामने रखना है| ज्ञानसंगम का आयोजन इसी उद्देश्य से किया गया है। भारतीय शिक्षा परंपरा और ज्ञान पर कालसुसंगत विचार विनिमय करने हेतु ज्ञानसंगम नामक विद्वत सभा की अखिल भारतीय स्तर पर आयेाजन किया गया था। यही उपक्रम वैचारिक क्षेत्र में आंदोलन का कान करनेवाले प्रज्ञा प्रवाह नामक मंच के माध्यम से देश में क्षेत्रीय स्तर पर छह स्थानों पर आयोजित किया जा रहा है|”
राज्यपाल कोहली ने कहा, “शिक्षा की जड़़े उसे देश की संस्कृति में होनी चाहिए| ऐसा न हो तो वह अराजकीय हो जाती है| मुस्लिम और ब्रिटिश काल में हम अपनी शिक्षा की जड़ें अपनी संस्कृति में रख नहीं पाए| मुस्लिम आक्रमण के समय हम राजनैतिक रूप से पराजित हुए लेकिन मानसिक रूप से अजेय रहे| ब्रिटिशों के 200 वर्षों के राज में हम न केवल राजनैतिक बल्कि मानसिक रूप से पराजित हुए| इस मानसिक पराजय से कैसे उबरना है यह हमारे सामने अहम सवाल है| स्वतंत्र भारत को हमें राष्ट्रबोध से जोड़ना इसलिए शिक्षा को भी राष्ट्रबोध से जोड़ना है|”
महर्षि अरविंद को उद्धृत करते हुए श्री. कोहली ने कहा, “भारतीय लोग सांस्कृतिक भावना से जुड़े हुए है| भारतीय संस्कृति का मूल भाव अध्यात्म है| सार्वभौमिकता उसका एक गुण है| वह शाश्वत है यह उसका दूसरा गुण है| कभी-कभी इसमें दुर्बलता आती है| एक पिढी से अगली पीढ़ी में संपदा संक्रमण करना यही परंपरा है| हमें अपनी परंपरा जिंदा करनी है तो उसमें शिक्षा की महत्वपूर्ण भूमिका है| अगर शिक्षा इसमें कम पड़ती है तो इसमें सुधार करना होगा और शिक्षा का भारतीयकरण करना होगा| शिक्षा हमारी देश की प्रकृति से जुडनी चाहिए, साथ ही आधुनिक चुनौतियों से लढ़ने में वह सक्षम होनी चाहिए||”
उन्होंने अफसोस जताया, कि स्वतंत्र देश में शिक्षा अभी भी परतंत्र है| अपराधबोध निकालने के लिए शिक्षा का भारतीयकरण जरूरी है| हमारे ऋषियों जो राष्ट्र की अवधारणा दी है, उसे अगली पीढी तक पहुंचाना होगा|
मानवशास्त्र के विषय में राष्ट्रबोध लाना होगा|
कुलुगुरु नितीन करमलकर ने कहा, “गुणवत्ता से समझौता किए बिना सबको शिक्षा प्रदान करना हमारे देश के सम्मुख उपस्थित समस्याओं में से एक है| शिक्षा प्रणाली के सर्वोत्कृष्ट परिणाम पाकर छात्रों को रोजगार मुहैय्या कराने के लिए हम सबको मिलकर विचार विमर्श करना चाहिए| नालंदा और तक्षशीला से लेकर भारत में शिक्षा की प्राचीन परंपरा रही है| हमारे पाठ्यक्रम में प्राचीन शिक्षा प्रणाली और आधुनिक ज्ञान का संगम होना चाहिए|” कार्यक्रम का सूत्रसंचालन प्रसन्न देशपांडे ने किया|
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