National Philosophers' Day reverring Adi Shankaracharya



RSS Sah Sarkaryavah Dr Krishna Gopal was addressing National Philosophers Day held at Constitution Club of New Delhi on the occasion of #Adishankaracharya Jayanti, organised by Navodayam and Faith Foundation.
Dr Krishna Gopal said “Adi Shankaracharya revived Bhagavad Gita and placed as the principle text of Bharat, through his monumental interpretation, of Gita Bhashya. Darshan deals with ultimate knowledge and seeks always the truth behind the existence. Adi Shankacharya has done so much for Sanatan Dharma in 32 years of his life. He was not just a theoretical philosopher, instead he was a Darshanik, who experienced truth of life and then disseminated the knowledge".






आदि शंकराचार्य ने सनातन धर्म के आध्यात्मिक सूत्र से राष्ट्र को भौगोलिक और सांस्कृतिक रूप से पुनः एक किया : डॉ कृष्ण गोपाल
11 मई 2016 नई दिल्ली (इंविसंके)। आदि शंकराचार्य के जन्म दिवस के अवसर पर नवोदय एवं फेथ फांडेशन के तत्वावधान में राष्ट्रीय फिलॉस्फर दिवस के रूप में कार्यक्रम आयोजित किया गया जिसमें युवा फांउडेशन तथा ग्लोबल सोसायटी ने भी सहयोग किया। फेथ फांउडेशन और ग्लोबल सोसाइटी के लोगों ने पूरे देश में जहां-जहां आदि शंकराचार्य गए, वहां की मिट्टी कलश में एकत्र करके केदारनाथ में जहां से शंकराचार्य जी शिवलोक को गए, वहां उस कलश को खाली करके उस जमीन को प्रणाम किया। इससे सम्बंधित एक वृत्तचित्र प्रदर्शन से आदि शंकराचार्य जी के जीवन से जुड़े विभिन्न स्थानों की जानकारी दी गयी. इस अवसर पर प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के पुस्तक ‘मन की बात’ का लोकार्पण भी किया गया.


कांस्टीट्यूशन क्लब मैं आयोजित कार्यक्रम में मंच से केन्द्रीय संस्कृति मंत्री डॉ. महेश शर्मा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह डॉ. कृष्ण गोपाल, अखिल भारतीय सह प्रचार प्रमुख श्री जे. नंदकुमार, साध्वी जया भारती, स्वामी संतोषानन्द, नवोदय फांउडेशन के अध्यक्ष डॉ. कैलाशंथा पिल्लई, कर्नल अशोक किनी तथा पी. रामचन्द्रन ने आदि शंकराचार्य के जीवन पर प्रकाश डाला। 


समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में बोलते हुए राष्ट्रीय डॉ. कृष्ण गोपाल जी ने बताया कि आदि शंकराचार्य के जन्म को ध्यान में रखते हुए आज के दिन को फिलॉस्फर दिवस के रूप में मनाना बहुत ही स्वागत योग्य कदम है। पाश्चात्य जगत का शब्द फिलॉस्फर जिसको भारत के दार्शनिक से जोड़ा जाता है, यह सही नहीं है। पाश्चात्य जगत में फिलॉस्फर बड़े विद्वान लोग होते हैं, वे गहराई से विश्लेषण भूत का, भविष्य का, वर्तमान का एनालाइसिस करके समाज के सामने चिंतन करते हैं, उनको हम लोग फिलॉस्फर कहते हैं। भारत का दार्शनिक इससे थोड़ा सा भिन्न है,  भारत का दार्शनिक अपने अंदर देखता है। भारत का धीर योगी दार्शनिक आंख बंद कर, बाहर की क्रियाओं को बंद करता है और अंदर देखता है, अंदर झांकता है कि मैं कौन हूं, मेरे अंदर कौन है, जो मेरे अंदर है, वही सबके अंदर है क्या? एकात्मा बोध को जो साक्षात कर देता है उसको भारत में दार्शनिककरते हैं। यह जरूरी नहीं कि भारत का दार्शनिक बहुत अधिक विद्वान होगा, उसने बहुत सारे ग्रंथ पढ़े होंगे। जैसे रामकृष्ण परमहंस किसी विश्वविद्यालय में नहीं पढ़े, पर बड़े भारी दार्शनिक थे। जो दूसरों के मन में देखता है, दूसरों की अंर्तआत्मा को देखता है और देखता है कि मैं और आप एक ही हैं, दो हैं ही नहीं। यह भारत के दार्शनिकों की परंपरा है। पाश्चात्य जगत का फिलॉस्फर फिलॉस्फी देता है, साहित्य देता है, सिद्धांत देता है कि आप उस पर चलिए। भारत का दार्शनिक ऐसा नहीं करता, भारत का दार्शनिक जो देखता है, उसको अपने जीवन में जीता है। उसको अपने जीवन में उतार देता है, इसलिए भारत का दार्शनिक एक अलग स्थान रखता है। आदि शंकराचार्य उसी महान परंपरा के एक महान व्यक्तित्व हैं। 



श्री कृष्ण गोपाल जी ने आदि शंकराचार्य के जीवन पर बताते हुए कहा कि केरल के कालडी में पैदा हुआ यह छोटा सा बालक, बाल्यावस्था में ही जिनके पिताजी गुजर गए। यज्ञोपवीत के बाद, 8 वर्ष में सन्यास लिया, 16 वर्ष में ज्ञान प्राप्त किया, 32 वर्ष में चले गए। 8 वर्ष की आयु में सन्यास लेकर आगे बढ़ना यह उस युग की मांग थी, आवश्यकता थी। उस समय देश की महान वैदिक परंपरा पर संकट आ गया था। उस काल में भगवान बुद्ध ने राजगृह त्याग कर करुणा, ममता, प्रेम, अहिंसा का संदेश दिया था। उनके विलक्षण व्यक्तित्व से प्रभावित होकर राजा-माहाराजा सहित हजारों लोग उनके पीछे चल पड़े। देखते ही देखते बौद्ध मत सारे देश में छा गया। 


भगवान बुद्ध जब चले गए, लेकिन उन्होंने कुछ बातों का उत्तर नहीं दिया। उन्होंने सोचा कि इस पर विवाद होगा कि  ईश्वर होता है कि नहीं होता, पुनर्जन्म, कर्मफल होता है कि नहीं होता? ऐसे अनेक प्रश्न थे । उन्होंने कहा इसका उत्तर देना ठीक नहीं है, इनके उत्तर की आवश्यकता नहीं है। लेकिन भारत की परंपरा में यह बड़े महत्वपूर्ण प्रश्न हैं। भारत का अध्यात्म इस पर टिका है। सारी सृष्टि को संचालित करता कौन है। भगवान बुद्ध का व्यक्तित्व ऐसा था कि तब लोग लोग शांत हो गए। लेकिन उनके जाने के बाद लोग शांत नहीं रहे। प्रश्न पर प्रश्न आए, बंटवारा हुआ। हेनयान, महायान हो गया, बहुत प्रकार की परंपराएं चलने लगीं और धीरे-धीरे लोगों को लगा कि यह क्या हो गया है। समस्या आ गई, लोगों को लगा कि इससे तो हमारा पुराना वैदिक धर्म ही अच्छा था। ठीक है पुराने में कुछ विकृतियां थीं, इतने बड़े-बड़े लम्बे महायज्ञ होते थे, पशुबलि भी हो जाती थी। लोग उसे उकता गए, इसलिए बुद्ध की शरण में आए। अब यहां आकर उकता गए कि अब कहां जाएं। यह बड़ा वैचारिक और दार्शनिक संकट उस समय लोगों के सामने खड़ा हो गया। इस परिस्थिति में शंकर खड़े होते हैं। कठिन काल था, वैदिकों के लिए, वैदिक परंपरा को मानने वाले लोगों के लिए भी संकट काल था।
उन्होंने बताया कि उस समय बौद्ध मत को मानने वालों में भी नागार्जन जैसे बड़े-बड़े प्रकांड विद्वान विद्वान थे, जो बौद्ध मत के विस्तार में लगे थे। लेकिन अब नया संकट खड़ा था, वैचारिकता, व्यवहारिकता, आध्यात्मिकता का और तब तक बुद्ध का आभा मंडल जा चुका था। समाज कौन से मार्ग को अपनाए, यह बड़ा कठिन प्रश्न खड़ा था। ऐसे में शंकर खड़ा होता है, यज्ञोपवीत में भिक्षा मांगने अपने गांव के दूर कोने में सफाई करने वाली महिला के घर में जाकर कहता है, ‘माँ भिक्षाम देहि। लोगों को समझ में आ गया कि यह कोई सामान्य बालक नहीं है। नहीं तो यज्ञोपवीत में बच्चे अपने कुल-खानदान में भिक्षा मांगने जाते हैं। यह संस्कार, मन के अंदर बैठा दर्शन तब से उनके अंदर व्याप्त था। सन्यास लेकर शंकर काशी आ गए, काशी में अध्ययन के साथ बहुत छोटी 12-13 वर्ष की अवस्था में अध्यापन भी किया। वहां चांडाल मिल गया, शंकराचार्य के शिष्यों ने उसे दूर हटो कहा। चांडाल इस पर हंसने लगता है, चांडाल समझ गया कि उनमें शंकर ही सबसे विद्वान है तो उनसे कहता है महाराज दूर हटो किसको कहते हैं आप। वह कहता है कि आपका शरीर और मेरा शरीर दोनों अन्न से बने हैं, वही अन्न आपने खाया है और वही अन्न मैंने खाया है, और ऐसा नहीं है तो जो चैतन्य आपके अंदर है वही चैतन्य मेरे अंदर है तो किसको दूर हटने को कहते हैं आप। शंकर कहते हैं यदि कोई भी व्यक्ति है जो यह जानता है, अनुभव करता है कि चींटी के अंदर हो या हाथी के अंदर, किसी भी मनुश्य के अंदर हो, जीव के अंदर हो ब्रह्म एक ही है, वो चांडाल हो या ब्राह्मण वो मेरे लिए गुरु के समान है। शंकराचार्य केवल एक दर्शन देने वाले व्यक्ति नहीं थे। उसको जीने वाले व्यक्ति हैं अनुभव करने वाले व्यक्ति हैं। आत्मा एक है, वो दो नहीं है, वो चाहे राजा की आत्मा हो या रंक की, विद्वान की आत्मा हो या निरक्षर की इन दोनों की आत्मा में अंतर नहीं होता। इसी सिद्धान्त को लेकर शंकराचार्य आगे बढ़ते हैं और स्थापित करते जाते हैं कि जो आत्मा है वो परमात्मा का ही अंश है। उसका वर्णन करते करते भिन्न-भिन्न प्रकार के शास्त्रों का, ग्रंथों का, श्लोकों की रचना का उन्होंने बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य किया। बहुत छोटी सी आयु में सबसे पहला काम उन्होंने गीता और बारह उपनिशद् पर भाष्य लिख कर किया। 


डॉ. कृष्ण गोपाल जी ने बताया कि बहुत कम लोगों को ध्यान होगा कि गीता उस काल में लुप्तप्राय थी, ध्यान में नहीं थी। शंकराचार्य पिछले 2000 साल में पहले व्यक्ति हैं जो गीता को वहां से निकालकर सबके सामने रखा। शंकराचार्य ने कहा कि जो शाश्वत सत्य है वह शिव है। यहां शिव का अर्थ मूर्ति का शिव नहीं, शिव का अर्थ परब्रह्म, ईश्वर वह निराकार है, वही सत्य है। यह दिखने वाला जगत जो है, वह सिनेमा की तरह है, रील की तरह चलता है, स्लाइड की तरह बदलता है। कुछ भी स्थिर नहीं है, जैसे माता-पिता, भाई-दोस्त, भवन-भोजन, कपड़ा सब दिखने वाले तत्व अशाश्वत है। उस समय की परिस्थिति में जब हजारों तरह की पूजा पद्यति शुरु हो गई थी, तब पांच तरह की सरल पूजा को उन्होंने स्थापित किया। उन्होंने शिव, विष्णु, सूर्य, गणेश और शक्ति इन पांच पूजा पद्धति में सबको आने को कहा। लेकिन यह भी बताया कि यह पूजा एक साधन है साध्य को प्राप्त करने का, सगुण से निर्गुण की ओर बढ़ने का। धान का बीज के अंदर निकलने वाले चावल के ऊपर की जो भूसी होती है, वह किसी काम की नहीं होती, उपयोगी चावल है, निरुपयोगी धान का छिलका है, लेकिन जब हम धान का पौधा बोते हैं तो धान को उस छिलके के साथ बोना होता है। आदि शंकराचार्य भी भिन्न-भिन्न प्रकार की पूजा-पद्यति को साधना बता रहे हैं कि यह चावल के छिलके की तरह हैं। जो शाश्वत है तो तत्व रूप शिव अलग है। उसको प्राप्त करने के लिए सारी साधना है।
सह सरकार्यवाह जी ने बताया कि उस समय में कैसी दूरदृष्टि रही होगी उनकी कि वेद का जो वैचारिक दर्शन था उससे भौगोलिक रूप से देश को कैसे एक करें। आदि शंकराचार्य ने इसके लिए बौद्ध के अनुयाइयों को भी साथ ले लिया। वो सबको लेकर के चलते हैं, भगवान बुद्ध को कहा अरे आप तो हमारे विष्णु के अवतारों में से एक हैं, उन्हें विष्णु का अवतार मान लिया। समग्र भारत की राष्ट्रीय भौगोलिक एकता के लिए उन्होंने केरल से उत्तर में केदारनाथ, बदरीनाथ, पूर्व में आसाम के घने जंगलों से होते हुए पश्चिम में द्वारका वहां से जगन्नाथ पुरी, अनेक क्षेत्रों में पद यात्राएं की। वे अयोध्या गए, कुरुक्षेत्र गए, काशी गए, प्रयाग गए, हरिद्वार गए, कोई भी ऐसा तीर्थ नहीं है जहां वे नहीं गए हों। उन्होंने सारा देश लगभग दो बार पेदल भ्रमण किया। कोई किनारा नहीं छोड़ा रामेश्वरम से लेकर केदार बद्री तक, उधर द्वारका से लेकर जगन्नाथ कामाख्या तक। उनमें प्रचंड तेजस्विता थी, बौद्धिक क्षमता थी, विनम्रता थी, संगठन की कुशल शक्ति थी। सारे देश के वैचारिक अधिष्ठान को एक भौगोलिक एकत्व में बांधने का संकल्प था आदि शंकराचार्य का। इसके लिए देश के चार अलग-अलग क्षोरों पर चार अलग-अलग मठ उन्होंने खड़े कर दिए। चारों वेदों के लिए साधना के केन्द्र बना दिए। दसनामी अखाड़े खड़े कर दिए। त्याग-वैराग्य का जीवन खड़ा कर दिया। इन मठों के अधिपतियों के लिए अनुशासन बना दिया। आपको यह करना है, यह नहीं करना। बहुत कठोर अनुशासन उन्होंने बनाया है। इस देश के शाश्वत दर्शन को फिर से पुण्य प्रवाह में लाने का काम आदि शंकराचार्य ने किया। इसलिए वे केवल फिलॉस्फर नहीं थे, वे दार्शनिक थे। जो देखा उसको जिया, अपने कृतत्व से साबित करके वो गए। यह भारत की परंपरा और विशेषता है जब अनेक बार ऐसे संकट भारत में आते हैं कि क्या करें, क्या न करें, ऊहापोह रहता है तब कोई न कोई ऐसा व्यक्ति खड़ा होता है जो फिर से हमारे इस दर्शन पर जमी हुई राख को हटा देता है। फिर से अपने इस दर्शन को, मौलिक शाश्वत मूल्यों के और भी निकट ले आता है। इसलिए वे केवल दार्शनिक ही नहीं समाज सुधारक भी थे, वे कवि थे, विद्वान थे, वे सारे देश की एकता के वाहक थे। कितनी दूरदृष्टि रही होगी उनमें कि इस देश के कोने-कोने में मठ कहां बनें। शिव मंदिर कहां बनें, कहां मंदिर स्थापित किए जाएं। कौन सी व्यवस्था सब को जोड़कर के चलेगी। उन दिनों की जो कुरीतियां थीं, ढोंग पाखंड थे, किसी प्रकार से जो रूढ़ियां आ गईं थीं उसे शांति से, बिना आलोचना के उन्होंने किनारे कर दिया। शंकर ऐसे निराशा के क्षणों से आशा का, विश्वास का, एक नई सृष्टि का संदेश देता है। ईश्वर से मिले कुल 32 वर्ष के सीमित जीवन काल में ही आदि शंकराचार्य जी ने 300 वर्ष के बराबर कार्य कर के दिखाया। इसलिए आज इस दार्शनिक के जन्मदिन पर हम लोग अपने शाश्वत दर्शन को स्मरण करें। कुरीति, ढोंग-पाखंड इसको हटाने का हमको संकल्प लेना है तभी शंकर की शाश्वतता हमारी आंखों के सामने, हमारे हृदय में जीवित रहेगी।
केन्द्रीय संस्कृति मंत्री डॉ. महेश शर्मा ने कहा कि आदि शंकराचार्य जी के जन्मदिवस पर फिलॉस्फर दिवस मनाने का फैसला मील का पत्थर साबित होगा। यह आने वाली पीढ़ियों के लिए शुभ संकेत है। जब जब हम कभी विश्व पटल पर बात करते हैं कभी हम बिलियन और ट्रिलियन फोरेन रिजर्व की बात नहीं करते। हम बात करते हैं भारत की घनी संस्कृति की, रिच हैरिटेज की, कल्चर की, वही हमारी पहचान है। एक फिल्मी डायलॉग है जिसमें कहते हैं कि मेरे पास मां है’, हम कहते हैं हमारे पास भारत की घनी संस्कृति है, हमारे पास आदि शंकराचार्य हैं और यह हमारी मूल भावना का केंद्र बिंदू हैं। किसी भी व्यवस्था की जब हम शुरूआत करते हैं तो उस पर प्रश्न चिन्ह उठते हैं। जैसे प्रधानमंत्री यदि किसी नए काम की शुरूआत करें तो आज तो पक्ष और विपक्ष की बात है लेकिन जब हम आदि काल की भी बात करें तो 8 वर्ष की आयु में आदि शंकराचार्य जब अपनी मां को छोड़कर जब सन्यास के लिए गए तो भी लोगों ने इस पर प्रश्न चिन्ह उठाया था कि यह कहां तक उचित है कि अपनी मां को समाज के भरोसे छोड़कर आप सन्यास लेने जा रहे हैं। अपनी मजबूत इच्छा शक्ति के कारण आदि शंकराचार्य ने यह मजबूत फैसला किया, उस वक्त के लोगों को कहा कि मैं आपकी भावनाओं की कद्र करता हूं कि आप मेरी मां के लिए चिंतित हैं। बाद में जब मां का जीवन अंत हुआ तो भी संत व्यवस्था में जो लिखा है कि वो अपनी मां का अंतिम क्रिया न करें लेकिन उस वक्त भी उन्होंने उस विधा को भी तोड़ा और अंतिम क्रिया में शामिल भी हुए। स्वामी विवेकानंद जी की हम उन पंक्तियों को अगर लें कि चल पड़ो और तब तक चलते रहो जब तक मंजिल प्राप्त न हो। उस व्यवस्था की अगर कहीं से मूल भावना शुरू होती है तो वह आदि शंकराचार्य हैं। क्रिटिसिज्म तो हर चीज का होना है, व्यवस्था में नया शुरू करने पर उसका विरोध तो होता ही है। अभी कुछ लोग कह सकते हैं कि क्या जरूरत है फिलॉस्फर डे मनाने की। हमारी प्राचीन संस्कृति, ज्ञान को विश्व के कोने-कोने में पहुंचाने का काम संस्कृति मंत्रालय के माध्यम से कर रहा हूं। देश का युवा जब बाहर विश्व में घूमने जाए उससे पहले वो भारत की घनी संस्कृति का अध्ययन करे। उससे अपेक्षाएं हैं विश्व की उससे कि वो भारत के ज्ञान और घनी संस्कृति के बारे में उसे बताए। इसलिए भारत का युवा पहने अपने देश के प्राचीन ज्ञान और संस्कृति का अध्ययन करे, उसके बाद ही वो दुनिया के बाकी देशों में जाए।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह प्रचार प्रमुख श्री जे. नंदकुमार जी ने बताया कि आदि शंकराचार्य ने पूरे विश्व के लिए आत्मदर्शन का अमृत दिया। उनके जन्मदिवस पर यह आयोजन नवोदय, फेथ फांउडेशन, यूथ फांउडेशन तथा ग्लोबल सोसाइटी के द्वारा किया जा रहा एक पवित्र प्रयास है। उन्होंने नवोदय से आह्वान किया कि बच्चों के लिए भी सनातन धर्म का जो दर्शन, वेद, पुराण, उपनिषद, सनातन धर्म की अपनी जो विरासतें हैं, इसको सिखाने के लिए कम से कम एक साप्ताहिक व्यवस्था करनी चाहिए। हम सबको मालूम है कि आज इस दर्शनशास्त्र के अभाव से धर्म की जानकारी न होने के कारण जिस तरह का परिप्रेक्ष्य उभर कर आ रहा कि भारत की बरबादी तक लोग जंग करने के लिए आ रहे हैं। इसलिए बच्चों को, विद्यार्थियों को, अपने बच्चों को इस तरह की शिक्षा देने के लिए कुछ इन्फार्मल सिस्टम खड़ा करने के लिए भी हम सब को मिलकर सोचने की आवश्यकता है। 
दिव्य ज्योति जाग्रति फांउडेशन की साध्वी जया भारती इस अवसर पर कहा कि सत्य जैसा है जब वैसा दिखे, जब आपकी अपनी सोच उसको प्रभावित न करे, जब आपकी परिस्थिति से प्रभावित आपकी सोच उसका आकलन न करे, यह सत्य जेसा है वैसा दिखे, उसे दर्शन कहते हैं। तीन चार शब्दों में आदि गुरु शंकराचार्य ने बता दिया कि सत्य है। ब्रह्म सत्य है और जगत मिथ्या है। संसार में सब कुछ बदलता रहता है, जो नहीं बदलता वह है आत्मा, ईश्वर, ब्रह्म। यही शाश्वत सत्य है। आदि गुरु शंकराचार्य ने इस देश के युवा को उसकी जड़ से जोड़ दिया और जिस देश के युवा को उस देश की  जड़ से जोड़ दिया जाए तो वो देश हरा भरा हो जाता है, लहलहाने लगता है। हम उस देश से हैं जहां ईश्वर सिर्फ सिद्धान्त नहीं है, ईश्वर देखा गया और इस ईश्वर के दर्शन से ही दर्शन शास्त्र बना। जो ईश्वर के दर्शन से निकली व्यवस्था होती है उसे सनातन धर्म कहते हैं, इसी से देश चलता है, देश की राजनीति चलती है, क्योंकि धर्म के बिना राजनीति ऐसी ही है जैसे प्राणों के बिना शरीर सड़ जाता है। हम उस देश के वासी हैं आदि शंकराचार्य जी हुए, हम उनकी संस्कृति के अनुयायी है, यदि हम उनका आभार प्रकट करना चाहते हैं तो हमें अपने आचरण में उनके सिद्धांतों को लाना पड़ेगा जैसे स्वामी विवेकानन्द जी लाए। उन्होंने प्रत्येक से जाकर के पूछा कि क्या आपने ईश्वर देखा है और क्या मुझे दिखा सकते हो। जब उन्हें रामकृष्ण परमहंस मिले, उनकी खोज पूर्ण हुई। उन्होंने कहा प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। दिख जाए तो मानना नहीं तो आगे बढ़ जाना। असल में आज ऐसे ही युवा सेनानी चाहिए। इसी ज्ञान से, दर्शन से हमें अपनी पीढ़ियों को सींचना है। जब तक हम अपने इस ज्ञान से, दर्शन से जुड़े हैं कोई भी आघात हमें नष्ट नहीं कर सकता।
स्वामी संतोशानंद जी ने कहा कि एक समय था जब हमारे देश में धर्म खतरे में था तब आदि शंकराचार्य जी ने धर्म को संकट से निकाला। आज फिर हमारा सनातन धर्म, वैदिक धर्म खतरे में है। एक वह भी दर्शन है जो हम अपनी आंखों से देख रहे हैं और एक वह भी दर्शन है जो हम अपनी आंखों से नहीं देखते वह है स्पिरिचुअल सांइस, मेटा फिजिक्स। आदि गुरु शंकराचार्य ने जीवन में पांच अदभुत सूत्र दिए। सेवा-साधना-सत्कर्म-स्वाध्याय और परमात्मा के प्रति समपर्ण का भाव। उन्होंने नहीं देखा कि छोटी जात का है या बड़ी जात का है। जन्म से तो हर आदमी शूद्र है। कर्मानुसार, ज्ञानानुसार तब डिसाइड होता है। आज आवश्यकता है कि हम अपने वैदिक-सनातन धर्म के प्रति जहां हैं खूब रात-दिन मेहनत करके भारत के दिव्य ज्ञान को पूरी दुनिया में फैलाएं।

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